बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्र
प्रश्न- पुरुष के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। पुरुष के अस्तित्व के लिए सांख्य द्वारा दिये गये तर्कों की विवेचना कीजिए।
अथवा
पुरुष के अस्तित्व के लिए सांख्य के तर्कों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
सांख्य दर्शन में पुरुष के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
अथवा
सांख्य दर्शन में पुरुष का क्या आशय है।
उत्तर -
पुरुष के स्वरूप की व्याख्या
पुरुष प्रकृति से बिल्कुल अलग तत्व है। इसके गुण प्रकृति के गुणों से परस्पर विरोधी होते हैं। प्रकृति में तीन गुणों सत्व, रज तथा तम का समावेश होता है जबकि पुरुष निर्गुण होता है, प्रकृति ज्ञान का विषय है तथा पुरुष ज्ञाता है, प्रकृति अविवेकी है तथा पुरुष विवेकी।
पुरुष के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए सांख्य दर्शन यह कहता है कि प्रकृति अहंकार आदि का योग है तथा दूसरे के प्रयोजन के लिए है जबकि पुरुष प्रयोजनों का साधन है। जिस प्रकार रथ स्वयं नहीं चल सकता है उसे किसी सारथी की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार प्रकृति, जड़, वस्तुएँ तथा वनस्पति आदि को भी किसी अधिष्ठाता की आवश्यकता होती है और वह अधिष्ठाता पुरुष है वह स्वयं गति नहीं करता है। वह तभी गति करता है जब चेतन आत्मा उसे प्रेरित करे।
सांख्य दर्शन को द्वैतवादी कहा जाता है क्योंकि इसके दो मौलिक तत्व हैं-
1. प्रकृति
2. पुरुष।
प्रकृति अगर मौलिक कारण है तो पुरुष भी वहाँ स्थान रखता है। अतः प्रकृति को जानने के बाद पुरुष का ज्ञान भी आवश्यक है। सांख्य दर्शन में पुरुष को आत्मा या जीव के नाम से जाना जाता है। जो स्वरूप पुरुष का है वही आत्मा का है। पुरुष का स्वरूप प्रकृति से भिन्न है अतः पुरुष प्रकृति पर आश्रित नहीं है वह तो केवल एक दृष्टा की भूमिका निभाता है जो निष्क्रिय है। सांख्य दर्शन में पुरुष के सम्बन्ध में जो बातें कही जाती हैं, वे सब बातें उपनिषद् में आत्मा के विषय में कही जाती हैं। उपनिषद् में आत्मा को आदि और अन्त से परे बताया गया है। आत्मा सूक्ष्म और अदृश्य है वह, मन और बुद्धि से परे है, आत्मा स्वतन्त्र तथा निरपेक्ष है, वह अनन्त है। उसका न निर्माण होता है और न ही उसका विनाश होता है।
पुरुष या आत्मा का स्वरूप - पुरुष या आत्मा का स्वरूप शुद्ध चेतना का स्वरूप है। चेतना पुरुष का गुण नहीं बल्कि चेतना ही पुरुष है। सांख्य दर्शन के अनुसार, आत्मा या पुरुष शरीर से अलग है क्योंकि शरीर भौतिक व नश्वर है जबकि आत्मा अभौतिक व अनश्वर है अर्थात् उसका न आदि है न अंत। पुरुष या आत्मा को हम ज्ञानेन्द्रियों से अलग पाते हैं। आँख, कान, नाक तो केवल यंत्र हैं वे अपने से ज्ञाता नहीं है। वह केवल औजार के रूप में कार्य करते हैं। अतः पुरुष को इन्द्रियों के औजार के रूप में भी पारिभाषित नहीं किया जा सकता।
पुरुष या आत्मा मन भी नहीं है क्योंकि मन अचेतन होता है जबकि आत्मा चेतनशील है। पुरुष या आत्मा बुद्धि भी नहीं हो सकती क्योंकि बुद्धि भी अचेतन है। पुरुष या आत्मा अहंकार भी नहीं हो सकता क्योंकि अंहकार शरीर का रूप है तथा आत्मा शरीर से अलग है। पुरुष को हम प्रकृति भी नहीं कह सकते क्योंकि प्रकृति अचेतन है व पुरुष चेतनशील है। सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष हमेशा प्रकाशयुक्त होता है। पुरुष या आत्मा के अस्तित्व को कार्य या कारण नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसका न तो आदि है और न ही अन्त। भारतीय दर्शन आत्मा का अस्तित्व मानते हैं परन्तु सभी दर्शनों में आत्मा को लेकर मतभेद हैं। चार्वाक दर्शन में आत्मा को शरीर से जोड़ा जाता है। चार्वाक दर्शन भौतिक शरीर को ही आत्मा कहता है यहाँ आत्मा नाशवान है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार, "आत्मा विज्ञान का प्रवाह मात्र है।" इसमें गतिशील अवस्था को आत्मा कहा जाता है।
न्याय और वैशेषिक दर्शन के अनुसार, "आत्मा एक अचेतन द्रव्य है जो विशेष अवस्थाओं में चैतन्य का आधार हो जाती है। इसमें पहले आत्मा चेतनारहित होती है फिर तपस्या तथा आराधना के कारण उसमें चेतना आ जाती है।
मीमांसा दर्शन के अनुसार, "चेतना पदार्थ है जिसके ऊपर अज्ञानता की काली छाया पड़ती है तथा अज्ञानता के हटने पर आत्मा का स्वरूप निखर जाता है।'
पुरुष या आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए सांख्य दर्शन में कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गए। सांख्य दर्शन में पुरुष को मौलिक सत्ता माना गया है। संसार के सभी पदार्थों का निर्माण अपने लिए न होकर दूसरे के लिए हुआ है इसलिए पुरुष या आत्मा नामक कोई चेतन पदार्थ अवश्य ही है अतः भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के लिए पुरुष या आत्मा का होना आवश्यक है।
जिस प्रकार किसी मशीन को चलाने के लिए चालक की आवश्यकता होती है उसी प्रकार प्रकृति के विकास में पुरुष चालक का कार्य करता है। प्रकृति में तीन गुण सुख, दुःख, उदासीनता पाये जाते हैं। इसके लिए अनुभवकर्त्ता का होना आवश्यक है। पुरुष अनुभवकर्ता के रूप में कार्य करता है। सांख्य दर्शन में मोक्ष प्राप्त करने के लिए मनुष्य दौड़ता है। अगर मनुष्य या आत्मा नहीं है तो मोक्ष कौन प्राप्त करेगा? प्रकृति से सभी सांसारिक पदार्थों का निर्माण होता है परन्तु प्रकृति अचेतन है उसमें चेतनशीलता का कार्य पुरुष करता है।
सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष या आत्मा की संख्या बहुत अधिक है। अतः संसार में जितने जीव हैं उतनी ही आत्मा है। अतः सांख्य दर्शन अनेकवाद को मानता है। शरीर की उत्पति पुरुष और प्रकृति से होती है। प्रकृति अचेतन है व पुरुष चेतन, इसलिए मेल के समय शरीर भी चेतनशील बन जाता है और हमें सुखों व दुःखों का ज्ञान होता है।
तत्व कौमुदी में कहा गया है आनन्द और दुःख प्रकृति के कारण होते हैं और पुरुष उनका अनुभव अज्ञानता के कारण करता है। पुरुष को दिखाने के लिए प्रकृति में क्रिया होती है क्योंकि पुरुष चेतनशील व शान्त द्रव्य है।
विज्ञान भिक्षु के अनुसार, "जिस प्रकार एक पारदर्शी धातु के द्वारा किसी लाल रंग की वस्तु को अगर देखा जाए तो उस वस्तु के लाल रंग के प्रभाव से पारदर्शी धातु भी लाल दिखाई भले ही पड़े परन्तु वह लाल नहीं है, उसी प्रकार पुरुष भी है।"
भारतीय दर्शन में जिस सत्ता को 'आत्मा' कहा जाता है उसे ही सांख्य दर्शन में पुरुष कहा गया है। वस्तुतः पुरुष और आत्मा एक ही तत्व के भिन्न-भिन्न नाम हैं। सांख्य दर्शन का पुरुष स्वयं सिद्ध है इसके अस्तित्व का निषेध करना सम्भव नहीं है। पुरुष की सत्ता का निषेध करने पर इस निषेध में ही इसकी सत्ता का प्रमाण निहित होता है। पुरुष का अस्तित्व असंदिग्ध है, इसके अस्तित्व के विषय में किसी भी प्रकार का संशय नहीं किया जा सकता है।
पुरुष शुद्ध चैतन्य है जो आत्मा में सदा सर्वदा वर्तमान रहता है। आत्मा की सभी अवस्थाओं में चैतन्य उपलब्ध होता है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। आत्मा स्वयं प्रकाशवान है, वह स्वयं प्रकाशित होती है साथ ही अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करती है। आत्मा शरीर से भिन्न है। आत्मा आध्यात्मिक है, जबकि शरीर भौतिक है। बुद्धि एवं अहंकार अचेतन है जबकि आत्मा चेतन है इसीलिए आत्मा बुद्धि एवं अहंकार से भिन्न है। आत्मा अनुभवातीत है। सांख्य का पुरुष निष्क्रिय है, क्योंकि इसमें इच्छा संकल्प द्वेष का अभाव होता है। जैन दर्शन में आत्मा को कर्ता माना गया है जो विश्व के कार्यों में हिस्सा लेता है। सांख्य का पुरुष दृष्टा एवं ज्ञाता है तथा कभी भी ज्ञान का विषय नहीं होता। आत्मा निसैगुण्य है क्योंकि इसमें तीनों गुणों का अभाव पाया जाता हैं आत्मा नित्य, अनन्त एवं अविनाशी है। सांख्य का पुरुष कार्य कारण श्रृंखला से मुक्त है। यह न तो किसी वस्तु का कारण हो सकता है और न ही किसी कारण का कार्य। पुरुष अपरिवर्तनशील तथा देशकाल की सीमा से परे है, परे होने का कारण यह है कि वह नित्य है। पुरुष सुख-दुःख से रहित अवस्था है क्योंकि इसमें राग-द्वेष का अभाव है। पुरुष निर्गुण है क्योंकि यह पुण्य पाप से रहित है।
पुरुष के अस्तित्व के लिए सांख्य द्वारा निम्नलिखित तर्क दिये गये हैं-
(1) प्रकृति महत्, अहंकार आदि सत्व, रजस और तमस के संघात हैं और इसलिए शय्या आदि चीजों की भाँति परार्थ अर्थात् दूसरे के प्रयोजन के लिए वे अचेतन हैं। इसलिए वे चेतन पुरुषों के प्रयोजन के साधन हैं। शरीर पाँच स्कूल भूतों का संघाट है और शय्या आदि की भाँति पुरुष के भोग का साधन है। पुरुष संघाट नहीं है। वह शरीर मनस्, वृद्धि, अहंकार आदि सत्व रजस और तमस् के संघातों से भिन्न है।
(2) सभी ज्ञेय वस्तुएँ अचेतन है, अविवेकी होने के साथ ही साथ ज्ञान के विषय हैं वे त्रिगुणात्मक हैं। सभी ज्ञेय वस्तुएँ ज्ञाता की अपेक्षा रखती हैं पुरुष ज्ञाता है।
(3) जैसे रथ स्वयं नहीं चल सकता बल्कि किसी चेतन अधिष्ठाता की अपेक्षा रखता है वैसे ही प्रकृति की जड़ वस्तुएँ, वनस्पति और प्राणियों के शरीर अचेतन होने से किसी चेतन अधिष्ठाता की अपेक्षा रखते हैं। पुरुष ही वह अधिष्ठाता है। भूत द्रव्य जड़ है। वह स्वयं गति नहीं कर सकता। वह गति या क्रिया केवल तभी कर सकता है जब चेतन आत्मा उसे प्रेरित करे। इसलिए जड़ जगत की सभी वस्तुओं की चेतन पुरुषों के अधिष्ठातत्व की अपेक्षा रहती है। प्रकृति और उसके व्यापारों का पथ-प्रदर्शन पुरुषों के द्वारा होता है।
(4) विश्व की सभी वस्तुएँ भोग की वस्तुएँ है। प्रकृति अचेतन होने के कारण इनका भोग नहीं कर सकतीं। प्रकृति तो स्वयं भोग्या है। इसलिए इसके भोक्ता के रूप में पुरुष की सत्ता स्वीकार करना आवश्यक है। यह नैतिक प्रमाण है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ सुख-दुःख उदासीन उत्पन्न करता है। परन्तु सुख-दुःख एवं उदासीनता का अर्थ तभी सार्थक हो सकता है जबकि इनका अनुभव करने वाली कोई चेतन सत्ता हो। यह चेतन सत्ता ही पुरुष है जो सुख-दुःख एवं उदासीनता का अनुभव करता है। में
(5) संसार में कुछ लोग मुमुक्षु होते हैं साथ ही मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। मोक्ष तीन प्रकार के दुःखों के आत्यन्तिक विनाश को कहते हैं। इसमें दुःख का बिल्कुल अभाव हो जाता है। बुद्धि आदि दुखात्मक है। दुःख वृद्धि की वृत्ति है। इसलिए वह दुःख से मुक्ति कदापि नहीं हो सकती। केवल पुरुष या आत्मा, जोकि बुद्धि आदि से भिन्न है, दुःख से छुटकारा पाकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
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- प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
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- प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
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- प्रश्न- क्या भारतीय दर्शन जीवन जगत के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण अपनाता है? विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
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- प्रश्न- दर्शन के सम्बन्ध में भारतीय तथा पाश्चात्य दृष्टिकोणों की व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- भारतीय वेद के सामान्य सिद्धान्त बताइए।
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- प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
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- प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- भारतीय दर्शन के आस्तिक तथा नास्तिक सम्प्रदायों की व्याख्या कीजिये।
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- प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
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- प्रश्न- चार्वाक दर्शन में तत्व सम्बन्धी बातों पर निबन्ध लिखिये।
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- प्रश्न- चार्वाक दर्शन के ईश्वर सम्बन्धी विचार दीजिए।
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- प्रश्न- चार्वाक दर्शन में प्रमाण विचारों का अर्थ बताइए तथा साधनों का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- चार्वाक दर्शन का संक्षिप्त मूल्यांकन कीजिये।
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- प्रश्न- चार्वाक के भौतिक स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- चार्वाक की तत्व मीमांसा का स्वरूप क्या है?
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- प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
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- प्रश्न- ईश्वर के अस्तित्व के लिए प्रमाणों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- चार्वाक दर्शन के प्रत्यक्ष प्रमाण की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- चार्वाक दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार दीजिए।
- प्रश्न- सुख प्राप्ति ही जीवन का अन्तिम उद्देश्य है। बताइये।
- प्रश्न- चार्वाक के ज्ञान सिद्धांत की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- "चार्वाक की तत्वमीमांसा उसकी ज्ञान मीमांसा पर आधारित है।" विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- जैन महावीर के जीवन वृत्त तथा शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारतीय संस्कृति में जैन धर्म के योगदान का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- जीव अथवा आत्मा किसे कहते हैं?
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- प्रश्न- न्याय दर्शन से ईश्वर किन रूपों में कार्य करता है।
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- प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान' के स्वरूप और प्रकारो की व्याख्या कीजिये।
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- प्रश्न- उपमान प्रमाण के स्वरूप का विवेचन करते हुए इसकी परिभाषा दीजिए।
- प्रश्न- 'न्याय दर्शन' में 'अनुमान प्रमाण के स्वरूप की व्याख्या कीजिए एवं अनुमान प्रमाण के प्रकारान्तर भेदों का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- अनुमान क्या है? परमार्थानुमान व स्मार्थानुमान को स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- न्यायदर्शन में निर्विकल्प प्रत्यक्ष का स्वरूप समझाइये।
- प्रश्न- न्यायदर्शन में उपमान प्रमाण का क्या स्वरूप है? न्याय दर्शन में उपमान प्रमाण का स्वरूप
- प्रश्न- चार्वाक दर्शन में अनुमान प्रमाण का खंडन किस प्रकार करता है?
- प्रश्न- अनुमान प्रमाण में व्याप्ति की भूमिका समझाइये।
- प्रश्न- प्रमा और अप्रमा के भेद को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- न्याय दर्शन में कितने प्रमाण स्वीकार किए गए हैं? सभी का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- समानतन्त्र के रूप में न्याय वैशेषिक की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों के नाम लिखिये।
- प्रश्न- वैशेषिक द्रव्यों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन में कितने गुण होते हैं?
- प्रश्न- कर्म किसे कहते हैं? व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- सामान्य की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- विशेष किसे कहते हैं? लिखिए।
- प्रश्न- समवाय किसे कहते हैं?
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन में अभाव क्या है?
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन क्या है? न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन में आपस में क्या सम्बन्ध है? वैशेषिक दर्शन में सात प्रकार के पदार्थ बताइए।
- प्रश्न- व्याप्ति क्या है? व्याप्ति की स्थापना किस प्रकार होती है?
- प्रश्न- 'गुण' और 'कर्म' पदार्थों की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- वैशेषिक दर्शन की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- न्याय-वैशेषिक दर्शन के स्वरूप पर प्रकाश डालिए?
- प्रश्न- न्याय-वैशेषिक दर्शन में अनुमान का क्या स्वरूप है?
- प्रश्न- समानतन्त्र के रूप में न्याय वैशेषिक की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- संयोग और समवाय पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- मीमांसा से क्या तात्पर्य है इसे भली-भाँति समझाइये।
- प्रश्न- पूर्व मीमांसा किसे कहते हैं?
- प्रश्न- द्रव्यों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- मीमांसा दर्शन में ज्ञान के कितने साधन माने गये हैं?
- प्रश्न- उपमान किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अर्थापत्ति किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अनुपलब्धि या अभाव किसे कहते हैं?
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- प्रश्न- ब्रह्म और माया क्या है?
- प्रश्न- ब्रह्म और जीव क्या हैं?
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- प्रश्न- "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" शंकर के इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं? शंकर के ब्रह्म और जगत सम्बन्धी विचारों के सन्दर्भ में विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- प्रभाकर मत में अख्यातिवाद क्या है? और यह किस प्रकार भट्ट मत के विपरीत ख्यातिवाद से भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- शंकर का अद्वैत वेदान्त क्या है?
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- प्रश्न- जीव किसे कहते हैं?
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- प्रश्न- माया क्या है? माया सिद्धान्त की रामानुज द्वारा दी गई आलोचना का विवरण दीजिए।
- प्रश्न- रामानुज के विशिष्टाद्वैत वेदान्त से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- रामानुज के अनुसार ब्रह्म क्या है? ईश्वर व ब्रह्म में भेद बताइए।
- प्रश्न- रामानुज के अनुसार मोक्ष व उनके साधनों का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- रामानुज के अनुसार ज्ञान के साधन क्या हैं?
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- प्रश्न- रामानुज के जगत की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- विशिष्ट द्वैत दर्शन की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- चित् व अचित् तत्व क्या हैं?
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- प्रश्न- चित्त क्या है?